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कविता

देवदार

बुद्धिनाथ मिश्र


जंगल से आया है समाचार
कट जाएँगे सारे देवदार।

देवदार हो गए पुराने हैं
पेड़ नहीं, भुतहे तहखाने हैं
उन बूढ़ी आँखों को क्या पता
पापलरों के नए जमाने हैं
रह लें वे तली बन शिकारे की
अश्वत्थामाओं में हों शुमार।

घूम-घूम कह गए गड़ाँसे हैं
ठीक नहीं ज्यादा हिलना-डुलना
बाँसवनों ने तो दम साध लिया
बंद हुआ बरगद का मुँह खुलना
मरी हुई सीप थमाकर लहरें
मोती ले गईं सिंधु से बुहार।

नाप रहा पेड़ों को आराघर
कुर्सियाँ निकलती हैं इतराकर
बिकने को जाएँगी पेरिस तक
नाचेंगी विश्वसुंदरी बनकर
कौन सुने, ओसों के भार से
दबी हरी दूबों का सीत्कार!

 


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